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कविता

दुनिया

रघुवीर सहाय


हिलती हुई मुँडेरें हैं और चटखे हुए हैं पुल
बररे हुए दरवाजे हैं और धँसते हुए चबूतरे

दुनिया एक चुरमुराई हुई-सी चीज हो गई है
दुनिया एक पपड़ियाई हुई-सी चीज हो गई है

लोग आज भी खुश होते हैं
पर उस वक्त एक बार तरस जरूर खाते हैं
लोग ज्यादातर वक्त संगीत सुना करते हैं
पर साथ-साथ और कुछ जरूर करते रहते हैं
मर्द मुसाहबत किया करते हैं, बच्चे स्कूल का काम
औरतें बुना करती हैं - दुनिया की सब औरतें मिल कर
एक दूसरे के नमूनोंवाला एक अनंत स्वेटर
दुनिया एक चिपचिपायी हुई-सी चीज हो गई है

लोग या तो कृपा करते हैं या खुशामद करते हैं
लोग या तो ईर्ष्या करते हैं या चुगली खाते हैं
लोग या तो शिष्टाचार करते हैं या खिसियाते हैं
लोग या तो पश्चात्ताप करते हैं या घिघियाते हैं
न कोई तारीफ करता है न कोई बुराई करता है
न कोई हँसता है न कोई रोता है
न कोई प्यार करता है न कोई नफरत
लोग या तो दया करते हैं या घमंड
दुनिया एक फँफुदियाई हुई चीज हो गई है

लोग कुछ नहीं करते जो करना चाहिए तो लोग करते क्या हैं
यही तो सवाल है कि लोग करते क्या हैं अगर कुछ करते हैं
लोग सिर्फ लोग हैं, तमाम लोग, मार तमाम लोग
लोग ही लोग हैं चारों तरफ़ लोग, लोग, लोग
मुँह बाए हुए लोग और आँख चुँधियाए हुए लोग

कुढ़ते हुए लोग और बिराते हुए लोग
खुजलाते हुए लोग और सहलाते हुए लोग
दुनिया एक बजबजाई हुई-सी चीज हो गई है।


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